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मैं पिता था तुम्हारा….

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नीचे प्रस्तुत की गयी कविता को मैंने एक सत्य घटना से प्रेरित होकर लिखा है, लेकिन अफ़सोस ये है की ये कहानी सिर्फ किसी एक घर की नहीं है अब तो ऐसा घर घर में होने लगा है…..आधुनिकता और व्यावहारिकता की बहुत घटिया सोंच का नमूना इस कविता के द्वारा-

जीते जी कोई फर्ज निभाया न गया तुमसे
मेरे मरने पे आज तुम अपने फ़र्ज़ निभाते हो,
एक गिलास पानी तो कभी पिलाया नहीं जीते जी
मेरे मरने के बाद मुझको साबुन से नहलाते हो,
जिंदा था तो कभी एक रोटी नहीं खिलाई
मर गया तो मुझको अब मिठाई खिलाते हो,
मेरे खाने-पीने का बोझ उठाया न गया तुमसे
आज मुझे अपने काँधे पे उठाते हो,
मेरे बिस्तर की चादर भी कभी सही न कर सके तुम
आज मेरे लिए लकड़ियों की शैय्या सजाते हो,
जीते जी मेरे मन को तो खूब जलाया था
आज मेरे निर्जीव तन को जलाते हो,
हैरान हूँ तुम्हारी आँखों में देख आंसू
दुनिया के डर से घड़ियाली आसू बहाते हो,
गालियाँ देने में मुझे शर्म आती नहीं थी तुमको
आज मेरे मरने का शोक जताते हो,
क्या था कुसूर मेरा मैं था पिता तुम्हारा,
चाहा था मैंने तुमसे बस थोड़ा सा सहारा,
क्या फ़र्ज़ ये तुम्हारा अधिकार न था मेरा,
मैंने ही तुमको पाला, तुमने ही मुंह को फेरा,
तुमसे अलग तो कोई संसार न था मेरा,
फिर किसके पास जाता, उम्मीद किससे करता,
तुम साथ गर जो देते तो इस तरह न मरता,
तुम्हारी बातों का ज़हर पीकर मैं कबका मर चुका था
ये शरीर ख़त्म करने को, था आज ज़हर खाया,
मेरी खुदकशी को तुमने दुनिया से है छिपाया,
मुझे सांप ने है काटा दुनिया को ये बताया,
हाँ सांप ने ही काटा पर सांप वो तुम्ही हो,
मेरी खुदकशी की असली, वजह तो तुम्ही हो,
जल्दी से जल्दी तुमको, मेरी दौलत चाहिए थी,
मेरी जिम्मेदारियों से बस फुर्सत चाहिए थी,
मैं आज मरता या कल, मिलता तुम्ही को सबकुछ,
दो रोटी, बोल मीठे, माँगा था और कबकुछ,
रोटी तो देते थे तुम, बातों के ज़हर के साथ,
ये ज़हर बढ़ रहा था, मेरी उमर के साथ,
इस उमर में आखिर कितना ज़हर पी सकता था मैं,
ऐसे हालात में भला कब तक जी सकता था मैं,
वाह मेरे लाडले, मेरे प्यार का, क्या खूब सिला दिया,
बुढापे में खुदकशी करने को,मजबूर कर दिया,
लेकिन कहीं शायद कुछ मेरी भी गलतियाँ थी,
जो संस्कार तुमको अच्छे न दिए मैंने,
थे कर्म मिलते-जुलते ऐसे ही किये मैंने,
अपने पिता से अच्छा व्यवहार कर न पाया,
आज आखिर उसका ही मूल्य है चुकाया-
आज आखिर उसका ही मूल्य है चुकाया!

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