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भारतवासी भेदभाव के समर्थक (भाग-2)

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पिछला भाग धार्मिक भेदभाव पर लिखा गया था, यह भाग जातिगत भेदभाव पर लिखा गया है I
हमारे समाज ने बहुत तरक्की कर ली है वह काफी हद तक आधुनिक हो चूका है लेकिन हमारे देश के कई टुकड़े किये गए जो अलग-अलग राज्य बना दिए गए और प्रत्येक राज्य के अन्दर कई जिले, इन जिलों के अन्दर कई शहर और गाँव…इन शहरो और गाँव में रहते हैं बहुत से लोग, ये लोग इतने सारे स्तरों पर हुए टुकड़ों से तो अपने आप को एक-दुसरे से भिन्न मानते ही हैं….साथ ही स्वयं को धर्म और जाति के आधार पर एक-दुसरे से भिन्न मानने की तो इन्हें बहुत ही पुरानी सांस्कृतिक धरोहर भी मिली हुयी है I
यह भेदभाव की भावना और आचरण किसी असिक्षित और अज्ञानी या पागल व्यक्ति के अन्दर ही हो ऐसा बिलकुल नहीं है I कई उच्च पदों पर बैठे लोग आज भी अपनी जाति-बिरादरी के लोगों का हर सही-गलत काम में साथ देते हैं तथा अन्य वर्ग के लोगों के कामों में अडंगा लगाने को तैयार रहते हैं…ऐसी मानसिकता के लोगों में उंच-नीच की भावना नहीं बल्कि अपने और पराये की भावना होती है I उन्हें लगता है की अगला व्यक्ति उसकी जाति का है तो वह उसका अपना ही है, अलग अन्य जाति का है तो पराया है, कभी कभी ऐसी भावनाए बहुत तीव्र होकर मुखर हो जाति है और कभी कभी ये लोगों के अचेतन मन में दबी हुयी होती है और इस तरह से प्रस्फुटित होती है की इस भावना के अपने अन्दर होने का व्यक्ति को स्वयं जल्दी अंदाजा नहीं होता है I ऐसी भावनाएं देश के विकास और उसकी अखंडता के लिए बहुत ही खतरनाक है I
इससे भी खतरनाक एक भावना है जो जातिगत उंच-नीच की भावना है इस प्रकार की भावना में किसी वर्ग के साथ यह कहकर भेद-भाव किया जाता है की यह तो नीच जाति का है, अछूत है I अछूत यानी जो छुए जाने के लायक भी न हो, यहाँ तक के प्राचीन काल में तो इस वर्ग के व्यक्ति को देखना भी किसी अपशकुन से कम नहीं माना जाता था, तथा यदि धोखे से भी इस वर्ग के किसी व्यक्ति की परछाई उच्च वर्ग के किसी व्यक्ति पर पड़ जाती थी तो इस वर्ग के उस व्यक्ति को डंडों से पीटा जाता था और बाद में वह उच्च वर्ग का व्यक्ति नहा-धो कर अपने आप को शुद्ध करता था I इस वर्ग के कई व्यक्ति मूर्तीकार भी होते हैं, मजदूर भी होते हैं, जिन्हें स्वयं अपने हांथों से बनाए हुए मंदिर के अन्दर जाने से कई क्षेत्रों में आज भी रोका जाता है, अपने हांथो से बनाई मूर्ती के वे दर्शन नहीं कर सकते….अभी 4 -5 दिन पहले मायावती के गाँव में ही दलितों को मंदिर में प्रवेश करने से रोका गया…क्या विडंबना है? क्या वाकई ईश्वर पर सबका बराबर का अधिकार है? नहीं इस वर्ग का अधिकार ईश्वर पर नहीं है….क्योंकि अगर होता तो इस वर्ग की ये दुर्दशा न होती!
आज के इस बदलते हुए आधुनिक युग में हमें प्राचीन काल जैसी भेदभाव पूर्ण सोंच और घटनाएं सिर्फ कभी कभार किसी ग्रामीण क्षेत्र में ही देखने या सुनने को मिलती है…जैसे किसी दलित स्त्री के साथ सामूहिक बलात्कार करना, दलित स्त्री को नग्न कर पूरे गाँव में घुमाना, दलित वर्ग के किसी व्यक्ति या परिवार को छोटी सी गलती पर गाँव छोड़ने को विवश करना या जूतों से पीटा जाना और मुंह काला कर गधे पे बिठा के गाँव में घुमाना इत्यादि I
किन्तु ऐसा नहीं है की यह जातिगत भेदभाव सिर्फ ग्रामीण क्षेत्रों तक ही सीमित है, यह शहरों में भी पाया जाता है, हाँ यहाँ इसका रूप अलग है तथा यह उतना घिनौना नहीं जितना ग्रामीण क्षेत्रों में है I समाज के अन्य वर्ग के लोगों का इस वर्ग के लोगों के साथ भेद-भाव और ऐसा घिनौना व्यवहार किये जाने के पीछे यह तर्क दिया जाता रहा है की पिछले जन्म में इसने ज़रूर बुरे कर्म किये होंगे जो इसका इस जाति में जन्म हुआ I अच्छा आपको ज्यादा पता है, आप कई बार जन्म ले चुके हैं और आपको सब याद है की पिछले जन्म में आपने बड़े तीर मारे थे जिसकी वजह से आपका जन्म उच्च कुल में हुआ और अगले ने घटिया काम किये थे इसलिए निम्न कुल में जन्म हुआ I
प्रारम्भ में तो जाति प्रथा कर्म आधारित थी की व्यक्ति अपने कर्मानुसार जाति का कहलायेगा किन्तु बाद में कुछ अधिक अक्लमंद लोगों ने इसे जन्म आधारित कर दिया की कही खुदा न खास्ता उनकी संताने नीच कर्म करके निम्न कुल में ना चली जाए? चलिए आपने पहले कर्म आधारित जाति प्रथा बनाई थी तो मै पूंछता हूँ वो भी क्यों? एक तरफ तो आप कहते हैं की काम कोई भी छोटा या बड़ा नहीं होता बस काम सही हो और इमानदारी तथा मेहनत से किया जाए I किन्तु आपने पहले कर्म से उंच-नीच का समर्थन किया और बाद में तो हद कर दी जो इसे जन्म आधारित कर दिया I संभवतः इसलिए क्योंकि पहले तो शूद्रों को पढने-लिखने का अधिकार था नहीं तब आपको यकीन था की ये वर्ग तो न पढ़ेगा लिखेगा, न उच्च कर्म कर पायेगा, न ही कभी उच्च वर्ग में शामिल हो पायेगा…..किन्तु बाद में धीरे-धीरे जब कुछ लोगों ने पढने-लिखने और श्रेष्ठ वर्ग में शामिल होने के लिए संघर्ष करना शुरू कर दिया तब आपने इसे जन्म आधारित बना दिया, मान गए क्या बुद्धि पायी है आपने आखिर गुरु तो गुरु ही होता है I आज जब राजनीति करने वालों ने इस वर्ग को शिक्षा और नौकरी के क्षेत्र में आरक्षण देना शुरू कर दिया है जो की कभी ख़त्म होने के आसार ही नज़र नहीं आते, तब आप कहने लगे हैं की अब भेदभाव कहाँ रह गया है, अब सब बराबर हो गए हैं और अब आरक्षण ख़त्म करो, साहब अखबार ज़रूर पढ़ते होंगे..दूसरे-तीसरे दिन किसी न किसी दलित को उच्च वर्ग के दबंगों द्वारा पीटे जाने, दलित स्त्री का लैंगिक रूप से शोषण किये जाने, या दलितों की पूरी की पूरी बस्ती या घर जला कर मार दिए जाने अथवा गोली मार दिए जाने की घटनाएं आती रहती हैं…और वे होती इसी वजह से हैं की नीच जाति वाले की हिम्मत कैसे हुयी की उसने उन श्रेष्ठ लोगों से ज़बान लड़ाने की या उनके सामने अपने अधिकारों की बात करने की हिम्मत की? दलित स्त्री को नग्न कर, मुंह काला कर गाँव में घुमाने या उसके साथ बलात्कार किये जाने की घटनाओं की संख्या बहुत है और यह इसलिए क्योंकि इन कथित श्रेष्ठ लोगों की नज़रों में दलितों की कोई इज्ज़त ही नहीं होती I ये वे घटनाएं हैं जिनमे अति हो जाती है और वे समाचार पत्रों में आ जाती हैं…किन्तु शहरों में जो दबा हुआ भेद-भाव है वह भी बहुत ज्यादा बड़े स्तर का है…यहाँ खाने-पीने, दोस्ती करने, एक दूसरे के घर जाने और बात-चीत करने में यह भेद-भाव अब उतना नहीं दिखाई पड़ता जितना की 10 -15 वर्षों पूर्व तक दिखाई देता था, किन्तु अब भी एक-दूसरे की पीठ-पीछे यह अक्सर सुनने को मिल जाता है की…”देखो साला नीच जाति का है और आज हमारे बराबर आके खड़ा हो गया है” I हाँ सामने से तो कोई तभी बोलता है जब बात बहुत बढ़ जाए, इसके अलावा सामने इसलिए भी नहीं बोलते की कही उनके खिलाफ कोई कानूनी कार्यवाही न कर दी जाए….फिर भी ज़्यादातर मामलो में ऐसी बातों को सुनकर भी अनसुना ही किया जाता हैं I
क्या श्रेष्ठता है आपकी जो एक ऐसे परिवार में पैदा होकर आप अपने आप को श्रेष्ठ साबित करने में लगे हुए हैं जिसके सदस्यों का जन्म भी ऐसे ही तथाकथित श्रेष्ठ कहलाने वाले परिवार में हो गया I आप आज क्या कर्म कर रहे हैं, आज आपकी मानसिकता क्या है इन सबसे रत्ती भर भी मतलब नहीं…. यहाँ तक की मैंने ब्राह्मणों को भी स्वयं आपस में इस बात पर बहस करते देखा है की मै श्रेष्ठ कुल का ब्राह्मण हूँ….नहीं मैं श्रेष्ठ कुल का ब्राह्मण हूँ…अक्ल पर पड़ी मिटटी को हटाइये और अपने कर्मों पर ध्यान दीजिये I
मैं भी यही चाहता हूँ की यह भेदभाव दूर हो आरक्षण ख़त्म हो और सभी को अपने आप को साबित करने का बराबर का मौका मिले…..लेकिन उसके पहले यह तथाकथित श्रेष्ठता का ढोंग ख़त्म किया जाए क्योंकि एक साथ चित और पट आपकी नहीं हो सकती…या तो आप श्रेष्ठ हैं और अगला नहीं जिसे श्रेष्ठ की श्रेणी में आने के लिए अभी भी आरक्षण की ज़रुरत है I इस जातिगत भेदभाव को ख़त्म करने के लिए “सत्य मेव जयते” कार्यक्रम के एक विद्वान् ने कहा था की जब एक जाति का व्यक्ति अन्य जाति में शादी करेगा और यह आम बात हो जायेगी तभी इस भेदभाव का अंत हो सकेगा I मैं उस विद्वान् की बातों से सहमत तो हूँ लेकिन मुझे पूरा यकीन है की ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला क्योंकि अभी भी जब कभी इक्का-दुक्का ऐसी घटनाएं घटती हैं तो उनमे से आधे जोड़ों को घर. परिवार और समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता है और कईयों को तो मौत के घाट के उतार दिया जाता है, फिर इस तरह की शादियों के बाद दस में कोई एक-दो जोड़े ही जिंदा बचते हैं जिनका आगे का जीवन भी बहुत संघर्षों से बीतता है क्योंकि उन्हें अक्सर ही समाज में किसी न किसी से ताने सुनने या गालिया सुनने को मिल जाति हैं I …..हाँ लेकिन अगर बदलाव लाना है तो उसकी कीमत तो चुकानी ही पड़ती है…..मेरा सुझाव इस तरीके से थोडा सा अलग है क्योंकि इस तरीके से सामाजिक एकता लाने के लिए कोई वर्ग जल्दी तैयार नहीं होगा I यहाँ तक की जिस वर्ग के लोगों को नीच माना जाता है वे स्वयं अपनी बिरादरी से बाहर विवाह करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते…और उच्च वर्ग तो उच्च है ही वो क्यों नीच समझे जाने वाले वर्ग में शादी करके अपनी इज्ज़त को कम करवाना चाहेगा…फिर भी यदि भारत वासी सामाजिक एकता लाना चाहते हैं तो फिर ये नाम के पीछे लगे मिश्र, शर्मा, सिंह, गुप्ता, चौधरी आदि से इन्हें कोई वास्ता नहीं होना चाहिए तथा इन पिछलग्गू नामों का त्याग करना चाहिए और सभी को बराबरी की श्रेणी में आकर खड़े हो जाना चाहिए जहां सभी भारतवासी हो न की मिश्र, शर्मा, सिंह, गुप्ता, वर्मा इत्यादि ..क्योंकि जब तक नाम के पीछे ये जाति-धर्म सूचक शब्द लगे हुए हैं कोई माई का लाल भारत वर्ष में एकता की भावना नहीं ला सकता I

ये वक़्त सिर्फ बोलने का नहीं करके दिखाने का है….हम सभी को अपनी आने वाली पीढ़ी के नामों के आगे से ये जाती सूचक शब्द हटाने होगे तभी यह जातिगत भेदभाव समाप्त हो पायेगा !

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